दिवाली गीत

 

बिंदिया जो सोहे लिलार

नयन कजरार

देहरी करे उजियार

सखी देखो सुन्नर नार।


साँझ पहर आजु

तिमिर भगावे

करि आवाहन

दैव बोलावे

थाल सजावे दीपक बाती

राह अगोरे द्वार

सखी देखो सुन्नर नार।


दूर अकास

नखत करें झिलमिल

धरनी गावत

झूमत तिल-तिल

बाँह गहे हँसे रैन अँधेरी

होत जात तार-तार

सखी देखो सुन्नर नार।


है आलोकित

कण-कण ये जग

सृष्टि समूह

दिखे सब जगमग

दीप उड़े दुर्लभ पंखों संग

नभ अम्बर के पार

सखी देखो सुन्नर नार।

जिज्ञासा सिंह

चैती लोकगीत


(१) सइयाँ खिसियाने..

भितर डेवढ़िया सासू सोइ गईं रामा, सइयाँ खिसियाने॥

खन खन बोले मोरे हाथे के कंगनवाँ, पाँव सजी बोले पैजनियाँ हो रामा, सइयाँ खिसियाने ॥

कंगना उतार मैं धइली बरोठे, पैजनियाँ फेंकली ओसरवा हो रामा, सइयाँ खिसियाने ॥

काव कहहुँ अइसी बैरन सासू, आजु नाहीं सुतली कोठरिया हो रामा, सइयाँ खिसियाने।

आधी रात बीती पिया रहिया अगोरें, सासू नन्द करें अठखेलिया हो रामा, सइयाँ खिसियाने॥

(२) भरल कचहरी..

अचकन म चिपकी टिकुलिया हो रामा, भरल कचहरी॥

सइयाँ का चले है मुक़दमा हो रामा, भरल कचहरी॥

जात कचहरी पिया हिया से लगावें, मथवा से गिरि गय टिकुलिया हो रामा, भरल कचहरी।

चिपकी टिकुलिया सब केउ निहारे, सइयाँ की उतरी सुरतिया हो रामा, भरल कचहरी॥

काढ़ि-काढ़ि खींस हकिम मुस्कावे, हँसि-हँसि जाय सिपहिया हो रामा, भरल कचहरी।

साँझ भए पिया घर जब लौटे, हम्पे तरेरे गोल अँखियाँ हो रामा, भरल कचहरी।

जिज्ञासा सिंह

होली और फगुआ गीत…

(१)फागुन मा बलमा धरयं दोकान

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फागुन मा बलमा धरयं दोकान फागुन मा 


वहि रे दोकनियाँ म रंग बिकत है 

लाल औ पीला मिलय गुलाल फागुन मा।


वहि रे दोकनियाँ म चुनरी बिकत है

रंगबिरंगी चटख गोटेदार फागुन मा।


वहि रे दोकनियाँ मिठइया मिलत है

लड्डू औ छेना, जलेबी रसेदार फागुन मा॥


वहि रे दोकनियाँ सिंगार मिलत है

सेंदुर औ बिंदिया कजर चोटी बार फागुन मा।


सखियन क लय हम जइबय दोकनियाँ 

अपना तौ लेब उनका देबय उधार फागुन मा।

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(२) ऐसी घिरी हैं घटाएँ

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ऐसी घिरीं हैं घटाएँ , मोरा जिया भरमाएँ

मोरी चुनरी उड़ाएँ.. ऐसी घिरीं हैं…


घिरीं घटाएँ रंग लेके आएँ.. लाल लाल लेके आएँ, पीली पीली ले के आएँ… ऐसी घिरीं हैं…


घिरी घटाएँ रंग बरसाएँ.. हरा हरा बरसाएँ.. नीला नीला बरसाएँ…ऐसी घिरीं हैं…


घिरी घटाएँ मन हर्षाएँ… मेरे केश उड़े जाएँ… मेरे पाँव नाच जाएँ… ऐसी घिरी हैं…


घिरी घटाएँ जीना सिखाएँ... बरखा ले आएँ… 

मेरे खेत भर जाएँ… ऐसी घिरी हैं…।

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**जिज्ञासा सिंह**

फौज हमय जिव-जान से प्यारी.. दो लोकगीत


(१)
सुन लेव पिताजी हमार, हमहूँ फौज मा जइबे।
साहब बनब सरकार, नजर दुसमन कय गिरइबे।।

हाथ म हम बन्दुखिया लेबै, अँखियाँ नाल म गड़इबे
सरहद पर घुसपैठ जो देखबै, बैरी मार देखइबै।
पिताजी हमहूँ फौज मा जइबे।

जगदम्बा, दुर्गा हम बनबै, रानी झाँसी बन जइबै,
देस के आगे परिवार न देखबै, जियरा देस पै लुटइबै
पिताजी हमहूँ फौज मा जइबे।

हमका पिताजी अबला न समझो, मौके पे सक्ति देखइबै 
सबल लोग पीछे रहि जैहैं, आगे कूद हम लड़बै,
पिताजी हमहूँ फौज मा जइबे।

फौज हमय जिव जान से प्यारी, सेवा कैइके देखइबै 
चाहे जेतनी होय परिच्छा,पास होइकै देखइबै,
 पिताजी हमहूँ फौज मा जइबे।

(२)
सैंया भए सेनानी छोड़ मोहें 
सरहद निकल गए ।
गोदिया म दइके निसानी
होत भिनुसारे निकल गए॥

खाकी-खाकी वर्दी, पे गोल-गोल टोपिया
हथवा में लय के पिया बैग औ बकसिया
बोलन लागे जैसे कागा, 
कोयलिया न बोली निकल गए ॥

लंबे लंबे पिया मोरे,चौड़ी-चौड़ी छतियाँ
संवरा बदन, ऊँचा माथा, बड़ी अँखियाँ
भूले नाहिं सुधि बिसराए,
हाय सूरतिया निकल गए ॥

पल ऐसे बीते जैसे मास दिवस बीते
पिया बिन मोरे हर रंग रैबार रीते
नीकी नाहीं लागे यही दुनिया,
बनाय बावरिया निकल गए ॥

अपने पिया को दिया बचन निभाय रही 
सारी जिम्मेवारी सीस माथे से लगाय रही 
देसवा है तन मन धन सब,
धराय के कसमियाँ निकल गए ॥

**जिज्ञासा सिंह**