हकिमवा सोवे रे हारी..कजरी

 
अरे रामा सूखा परा बड़ी जोर,

हकिमवा सोवे रे हारी 

चाहे जेतना मचाऊँ सोर

हकिमवा सोवे रे हारी 


मैं द्वारे पै उनके ठाढ़ी

 बतिया सुनै  हमारी

मैं भूख पियास की मारी रामा

अरे रामा सौ सौ हाँक गुहारी

जियरा मोरा रोवे रे हारी 


जे हाकिम हमारा बनाया

इसे हमने खोपड़िया चढ़ाया

तनी देर  देहौं उतारी रामा

अरे रामा मुँह भर देहौं मैं गारी

चाहे कछु होवे रे हारी 


मैं हारि लवट घर आई

मन अपने क़सम धराई

सब करिहौं मैं स्वयं उपायी रामा

अरे रामा लोगन  अलख जगायी

बीज सब बोवे रे हारी 


मैं अपनी सखिन का बोलाई

बट नीम  तुलसी उगा

मैं द्वारे पे सगरा खोदाई रामा

अरे रामा दरि-दरि बिरछ लगाई

हरेरी आवे रे हारी 


**जिज्ञासा सिंह**

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर ! लगता है कि आसमानी हाकिम भी धरती के हाकिमों की तरह हम आम लोगों की दर्द भरी पुकार को अनसुना कर रहा है.

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  2. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर ।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-06-2022) को चर्चा मंच     "गुटबन्दी के मन्त्र"   (चर्चा अंक-4471)     पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
    -- 
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'    

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  4. आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय शास्त्री जी।

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  5. मैं अपनी सखिन का बोलाई
    बट नीम औ तुलसी उगाई
    मैं द्वारे पे सगरा खोदाई रामा
    अरे रामा दरि-दरि बिरछ लगाई
    बहुत अच्छी सीख भरी रचना, सब सखी-सहेली मिलकर जब बड़, नीम और तुलसी उगाते हैं साथ में तो उसका आनंद और उत्साह की बात ही कुछ और होती है

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  6. बहुत ही सुंदर लिखा है आपने भाव झरने से बह पड़े।
    सादर

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