घर पिछवारे परा अँधेर.. अवधी लोकगीत



घर पिछवारे परा अँधेर 

घर पिछवारे रहयँ गरीबिन
नाउन धोबिन लोधिन महरिन
सुनौ सास तनी देखि के आओ
काहे दियना नाहीं बारिन
गौधिरका कय आई बेर

कलिहाँ देखा जात रहीं सब
जोर-जोर बतुआत रहीं तब
न राशन न मिला तेल है
दिया दिवारी का होई अब
कोटा आवे म अबहिंव देर

देवतन का लड़ुअन कय आसा
अम्मा माँगें खील-बतासा
लड़िके चुटपुटिया का लोटयँ
पापा झूरय दिययँ दिलासा
मम्मी का सब बइठे घेर 

मर मजदूरी कै अकाल हय 
मनरेगव अबकी बेहाल हय
एक दिहाड़ी दुइ मजूर पर 
रिक्सा टेम्पू केयू न पूछय 
हय गरीब कय ढेरम ढेर 

जिज्ञासा सिंह 

आजी के देवता.. लोकगीत

 

न भूले न भूले न भूले रे
मोहे आजी के देवता न भूले रे॥

आजी के देवता बिरवना बिराजें।
आजी के देवता फुलववा बिराजें 
पाती-पाती देवी औ साखा-साखा देवा
तुलसी बियहवा न भूले रे॥

रहिया चलत आजी कौआ मनावें
गइया बछउआ कुतउआ मनावें
सबही म देवता सबही म पुरखा
कुआँ-बगिया गवनवा न भूले रे॥

बढ़नी औ झाड़ू लय नजर उतारें
सिलबटिया न्योछावर उवारें
मूसर ओखरिया खैलर डलउआ
जले दियना सुपउआ न भूले रे॥

जर और बोखार आजी निमियाँ मनावें
पेटवा पिराय आजी सुरजा मनावें
नैहर आवें जो बुआ औ बहिनिया
गुड़ लौंग ढरकौना न भूले रे॥

जिज्ञासा सिंह

अगल-बगल नाहीं स्कूल


अगल-बगल नाहीं स्कूल

मुनिया आपन कहाँ पढ़ाई

बैठ दुआरे झंखत बाटीं

नन्हकइया बड़कइया क माई


पारसाल ईंटा गिरगा

सीमिंट अबहिं नाहीं आई

लागत है अबकी चुनाव म

नेंय कय साइत होय जाई

दिहिन दिलासा तब परधान

जब पंच घेरि कय बैठि गए

फिर सबर किहिन जोंधई क दुलहिन

लरिकव किताब दुइ पढ़ि पाई


नैहर हमरे इस्कूल खुला

सब लगे पढ़ावन हैं मुंसी

आषाढ़ गवा सावन आवा

लड़िकवय चरावत हैं भैंसी

अब काव कही यहि गउवाँ का

गोंदरी पर सोवत हैं बिकास

नारा घूरे पर चढ़ा बैठ

रुपया माँगत है उतराई 


हम कहा रहा अबकी अँगुठा कय

स्याही गउवाँ बदलि देय

कौनौ अपने जाति क सुन्नर

मनई पर ठप्पा मारि लेय

कुछ करी न करी खुसी रही 

कि अपन बिरादर नेता है

तू मानउ न मानउ चुनाव म

खाज कोढ़ से भलि भाई


जिज्ञासा सिंह

राम मोरे सपन म आए


रघुकुल मणि राम मोरे सपन म आए 
छवि देखूँ अविराम मोरे सपन म आए 

मलयागिरी माथे चंदन है चंदन 
दोऊ नैना रत्नार कजरा हैं रुचिर लगाए 

पवन बहे बेगि बड़ी है सुंदर बड़ी है मनहर 
पुसपक बीमान बैठे हैं अति हरसाए 

संग आवैं नवग्रह सारे, नवग्रह सारे 
सूरज और चाँद, तारे हैं संग म आए 

बैठारा है स्वर्ण सिंहासन हाँ स्वर्ण सिंहासन 
चरणन हनुमान, बैठे हैं सीस नवाए 

सजे थाल दीप औ बाती, दीप औ बाती 
रही अरती मैं ऊतार, वे दूनो है हाथ उठाए 

जिज्ञासा सिंह

बलमवा बढ़िया चाही (लोकगीत)

काजल देवी की जय हो!
जन्मदिन की बधाई❤️🌹

साँवरि सूरत मोहनि मूरत
नइना करें कमाल, बलमवा बढ़िया चाही।
मोरे मन की सुन लो अम्मा,
तुम्हें बताऊँ हाल, बलमवा बढ़िया चाही॥

घर चाहे कुछ छोटा हो,
सर्बिस धंधा मोटा हो,
छोटा-मोटा चल भी जाए
पर जिव का न खोटा हो
अपनी मीठी बतियन से 
मोहे कर दे मालामाल, बलमवा बढ़िया चाही॥

डील-डौल से हट्टा-कट्टा, 
देख दाँत हो सबका खट्टा,
मोरा मनवा मचल पड़े 
हो ऐसा निराला पट्ठा
 अँखियाँ हों चमकीली उसकी
चले नसीली चाल, बलमवा बढ़िया चाही॥

दिल्ली, बम्बई हमें घुमावे,
पिक्चर-सनिमा खूब दिखावे
जैसे ही कुछ माँगी मन का
तुरत कहीं से लेकर आवे
जइसे बोलूँ वइसे चलदे
रोज घुमावे माल, बलमवा बढ़िया चाही॥

पकड़ कलैया संग-संग घूमे,
डीजे पर नाचे औ दूमे,
चलूँ जिधर से पहन ओढ़ि के
हमरे आगे पीछे घूमे
आइस्क्रीम ऐसी खिलवावे 
मुँहवा कर दे लाल, बलमवा बढ़िया चाही॥

जिज्ञासा सिं

दिवाली गीत

 

बिंदिया जो सोहे लिलार

नयन कजरार

देहरी करे उजियार

सखी देखो सुन्नर नार।


साँझ पहर आजु

तिमिर भगावे

करि आवाहन

दैव बोलावे

थाल सजावे दीपक बाती

राह अगोरे द्वार

सखी देखो सुन्नर नार।


दूर अकास

नखत करें झिलमिल

धरनी गावत

झूमत तिल-तिल

बाँह गहे हँसे रैन अँधेरी

होत जात तार-तार

सखी देखो सुन्नर नार।


है आलोकित

कण-कण ये जग

सृष्टि समूह

दिखे सब जगमग

दीप उड़े दुर्लभ पंखों संग

नभ अम्बर के पार

सखी देखो सुन्नर नार।

जिज्ञासा सिंह

चैती लोकगीत


(१) सइयाँ खिसियाने..

भितर डेवढ़िया सासू सोइ गईं रामा, सइयाँ खिसियाने॥

खन खन बोले मोरे हाथे के कंगनवाँ, पाँव सजी बोले पैजनियाँ हो रामा, सइयाँ खिसियाने ॥

कंगना उतार मैं धइली बरोठे, पैजनियाँ फेंकली ओसरवा हो रामा, सइयाँ खिसियाने ॥

काव कहहुँ अइसी बैरन सासू, आजु नाहीं सुतली कोठरिया हो रामा, सइयाँ खिसियाने।

आधी रात बीती पिया रहिया अगोरें, सासू नन्द करें अठखेलिया हो रामा, सइयाँ खिसियाने॥

(२) भरल कचहरी..

अचकन म चिपकी टिकुलिया हो रामा, भरल कचहरी॥

सइयाँ का चले है मुक़दमा हो रामा, भरल कचहरी॥

जात कचहरी पिया हिया से लगावें, मथवा से गिरि गय टिकुलिया हो रामा, भरल कचहरी।

चिपकी टिकुलिया सब केउ निहारे, सइयाँ की उतरी सुरतिया हो रामा, भरल कचहरी॥

काढ़ि-काढ़ि खींस हकिम मुस्कावे, हँसि-हँसि जाय सिपहिया हो रामा, भरल कचहरी।

साँझ भए पिया घर जब लौटे, हम्पे तरेरे गोल अँखियाँ हो रामा, भरल कचहरी।

जिज्ञासा सिंह