अपने बपैया की मैं बहुत दुलारी,
अम्मा की बड़ी मैं पियारि रे।
नान्हेन से बापू दिल मा बसावें,
अम्मा करें मनुहारि रे ॥
अम्मा कहें बेटी खूब पढ़इबे,
बाबा कहें बी ए पास रे।
दादी कहयँ बेटी घर से ही पढ़िहैं,
बेटी क जियरा उदास रे॥
दादी कहैं बेटी बगल बियहिहैं ,
होई जैहैं यहीं आबाद रे।
अपने देश बेटी सब कुछ मिलिहैं,
मिल जैहें दुलरू दमाद रे॥
एतनी बचन सुन बेटी जे रूठीं,
रोवन लागीं ओढ़नी फेकार रे।
अँसुवन से भरी सूखी तलरिया,
बही चली नदिया कछार रे॥
चिरई जे रोवें, चिरंगुल रोवें,
पेड़ पकड़िया दुआर रे ।
खूंटे पे बंधे गाय गोरू जे रोवें,
रोवें खेत खलिहान रे ।।
कहे क जन्म दिहिव मोरी अम्मा,
काहे क दुनिया देखाव रे।
हम तव पढ़िहैं तबहि जग रहिहैं,
नाहीं तव देहौं प्रान त्याग रे॥
पटकि पटकि मुड़ रोवहि मोरी बेटी,
बाप कवहियाँ के ठाढ़ रे।
रोवत बेटी क हिय से लगावहिं,
अँसुवन पोछहिं रुमाल रे॥
मति रोवो बेटी मैं दादी समझैहौं,
बेटी जनम अहोभाग रे।
बेटी के पढ़िबे से दुइ कुल पढ़िहैं,
बनि जैहैं सुघर समाज रे॥
**जिज्ञासा सिंह**