जिज्ञासा के गीत
इस ब्लॉग में मैंने स्वरचित लोकगीतों को उद्घृत किया है ,जो उत्तर भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा हैं -
आजी के देवता.. लोकगीत
अगल-बगल नाहीं स्कूल
अगल-बगल नाहीं स्कूल
मुनिया आपन कहाँ पढ़ाई
बैठ दुआरे झंखत बाटीं
नन्हकइया बड़कइया क माई
पारसाल ईंटा गिरगा
सीमिंट अबहिं नाहीं आई
लागत है अबकी चुनाव म
नेंय कय साइत होय जाई
दिहिन दिलासा तब परधान
जब पंच घेरि कय बैठि गए
फिर सबर किहिन जोंधई क दुलहिन
लरिकव किताब दुइ पढ़ि पाई
नैहर हमरे इस्कूल खुला
सब लगे पढ़ावन हैं मुंसी
आषाढ़ गवा सावन आवा
लड़िकवय चरावत हैं भैंसी
अब काव कही यहि गउवाँ का
गोंदरी पर सोवत हैं बिकास
नारा घूरे पर चढ़ा बैठ
रुपया माँगत है उतराई
हम कहा रहा अबकी अँगुठा कय
स्याही गउवाँ बदलि देय
कौनौ अपने जाति क सुन्नर
मनई पर ठप्पा मारि लेय
कुछ करी न करी खुसी रही
कि अपन बिरादर नेता है
तू मानउ न मानउ चुनाव म
खाज कोढ़ से भलि भाई
जिज्ञासा सिंह
राम मोरे सपन म आए
बलमवा बढ़िया चाही (लोकगीत)
दिवाली गीत
बिंदिया जो सोहे लिलार
नयन कजरार
देहरी करे उजियार
सखी देखो सुन्नर नार।
साँझ पहर आजु
तिमिर भगावे
करि आवाहन
दैव बोलावे
थाल सजावे दीपक बाती
राह अगोरे द्वार
सखी देखो सुन्नर नार।
दूर अकास
नखत करें झिलमिल
धरनी गावत
झूमत तिल-तिल
बाँह गहे हँसे रैन अँधेरी
होत जात तार-तार
सखी देखो सुन्नर नार।
है आलोकित
कण-कण ये जग
सृष्टि समूह
दिखे सब जगमग
दीप उड़े दुर्लभ पंखों संग
नभ अम्बर के पार
सखी देखो सुन्नर नार।
जिज्ञासा सिंह
चैती लोकगीत
(१) सइयाँ खिसियाने..
भितर डेवढ़िया सासू सोइ गईं रामा, सइयाँ खिसियाने॥
खन खन बोले मोरे हाथे के कंगनवाँ, पाँव सजी बोले पैजनियाँ हो रामा, सइयाँ खिसियाने ॥
कंगना उतार मैं धइली बरोठे, पैजनियाँ फेंकली ओसरवा हो रामा, सइयाँ खिसियाने ॥
काव कहहुँ अइसी बैरन सासू, आजु नाहीं सुतली कोठरिया हो रामा, सइयाँ खिसियाने।
आधी रात बीती पिया रहिया अगोरें, सासू नन्द करें अठखेलिया हो रामा, सइयाँ खिसियाने॥
(२) भरल कचहरी..
अचकन म चिपकी टिकुलिया हो रामा, भरल कचहरी॥
सइयाँ का चले है मुक़दमा हो रामा, भरल कचहरी॥
जात कचहरी पिया हिया से लगावें, मथवा से गिरि गय टिकुलिया हो रामा, भरल कचहरी।
चिपकी टिकुलिया सब केउ निहारे, सइयाँ की उतरी सुरतिया हो रामा, भरल कचहरी॥
काढ़ि-काढ़ि खींस हकिम मुस्कावे, हँसि-हँसि जाय सिपहिया हो रामा, भरल कचहरी।
साँझ भए पिया घर जब लौटे, हम्पे तरेरे गोल अँखियाँ हो रामा, भरल कचहरी।
जिज्ञासा सिंह
होली और फगुआ गीत…
(१)फागुन मा बलमा धरयं दोकान
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फागुन मा बलमा धरयं दोकान फागुन मा
वहि रे दोकनियाँ म रंग बिकत है
लाल औ पीला मिलय गुलाल फागुन मा।
वहि रे दोकनियाँ म चुनरी बिकत है
रंगबिरंगी चटख गोटेदार फागुन मा।
वहि रे दोकनियाँ मिठइया मिलत है
लड्डू औ छेना, जलेबी रसेदार फागुन मा॥
वहि रे दोकनियाँ सिंगार मिलत है
सेंदुर औ बिंदिया कजर चोटी बार फागुन मा।
सखियन क लय हम जइबय दोकनियाँ
अपना तौ लेब उनका देबय उधार फागुन मा।
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(२) ऐसी घिरी हैं घटाएँ
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ऐसी घिरीं हैं घटाएँ , मोरा जिया भरमाएँ
मोरी चुनरी उड़ाएँ.. ऐसी घिरीं हैं…
घिरीं घटाएँ रंग लेके आएँ.. लाल लाल लेके आएँ, पीली पीली ले के आएँ… ऐसी घिरीं हैं…
घिरी घटाएँ रंग बरसाएँ.. हरा हरा बरसाएँ.. नीला नीला बरसाएँ…ऐसी घिरीं हैं…
घिरी घटाएँ मन हर्षाएँ… मेरे केश उड़े जाएँ… मेरे पाँव नाच जाएँ… ऐसी घिरी हैं…
घिरी घटाएँ जीना सिखाएँ... बरखा ले आएँ…
मेरे खेत भर जाएँ… ऐसी घिरी हैं…।
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**जिज्ञासा सिंह**