अगल-बगल नाहीं स्कूल


अगल-बगल नाहीं स्कूल

मुनिया आपन कहाँ पढ़ाई

बैठ दुआरे झंखत बाटीं

नन्हकइया बड़कइया क माई


पारसाल ईंटा गिरगा

सीमिंट अबहिं नाहीं आई

लागत है अबकी चुनाव म

नेंय कय साइत होय जाई

दिहिन दिलासा तब परधान

जब पंच घेरि कय बैठि गए

फिर सबर किहिन जोंधई क दुलहिन

लरिकव किताब दुइ पढ़ि पाई


नैहर हमरे इस्कूल खुला

सब लगे पढ़ावन हैं मुंसी

आषाढ़ गवा सावन आवा

लड़िकवय चरावत हैं भैंसी

अब काव कही यहि गउवाँ का

गोंदरी पर सोवत हैं बिकास

नारा घूरे पर चढ़ा बैठ

रुपया माँगत है उतराई 


हम कहा रहा अबकी अँगुठा कय

स्याही गउवाँ बदलि देय

कौनौ अपने जाति क सुन्नर

मनई पर ठप्पा मारि लेय

कुछ करी न करी खुसी रही 

कि अपन बिरादर नेता है

तू मानउ न मानउ चुनाव म

खाज कोढ़ से भलि भाई


जिज्ञासा सिंह

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर लोकगीत सखी

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह! सखी ,बहुत खूबसूरत गीत!

    जवाब देंहटाएं
  3. सरकारी स्कूलों के हमेशा हाल बेहाल रहते हैं, तभी तो ये धीरे-धीरे बंद होते जा रहे हैं।
    बहुत बढ़िया प्रेरक रचना

    जवाब देंहटाएं
  4. सही कहा गोंदरी पर सोवत हैं बिकास
    लाजवाब गीत
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं
  5. क्या बात है प्रिये! इस शिक्षा के चरम युग में भी मुनिया स्कूल की बजाय भैसिया चराती है तो बड़ी चिंता की बात है सखी! लोग जीवन की विसंगतियों का उद्घाटन करता बड़ा मीठा गीत है प्रिय जिज्ञासा! दुआ है हर मुनिया को घर के अगल बगल स्कूल जरूर मिले।

    जवाब देंहटाएं