अरे रामा चूड़ी है रंगबिरंगी
चुनरिया धानी रे हारी ।
मेरे माथे सजी है बिंदिया,
नथनिया न्यारी रे हारी ॥
मैं पहन के निकली अँगनवाँ
हैं द्वारे से आए सजनवाँ
मैं देख उन्हें शरमाई रामा
अरे रामा पुरवा चले बयार
पिया पे जाऊँ वारी रे हारी ॥
अरे रामा चूड़ी है रंगबिरंगी
चुनरिया धानी रे हारी ॥
मोरी चूड़ी खनखन बोले
मोरा जियरा रहि रहि डोले
मोरी निमियाँ पे बोले कोयलिया रामा
अरे रामा पपिहा गावे मल्हार
बिहंसें सखि प्यारी रे हारी ॥
अरे रामा चूड़ी है रंगबिरंगी
चुनरिया धानी रे हारी ॥
अब सावन झूले पड़ेंगे
हम सखियन के संग झूलेंगे
हम मारेंगे पेंग अकासी रामा
अरे रामा जाएँगे नभ के पार
लचक जाए डारी रे हारी ॥
अरे रामा चूड़ी है रंगबिरंगी
चुनरिया धानी रे हारी ॥
**जिज्ञासा सिंह**
बहुत ही सुन्दर सृजन❤️💙💚🧡🌻
जवाब देंहटाएंबहुत आभार शिवम जी ।
हटाएंबहुत सुन्दर कजरी लिखा है आपने बहन👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय दीदी।
हटाएंसुन्दर झूला-गीत !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आदरणीय सर।
जवाब देंहटाएंआपकी कविता में तो पूरा सावन ही उतर आया है। बहुत सुंदर🌷
जवाब देंहटाएंबहुत आभार विभा की ।आपकी उपस्थिति खुशी दे गई । हार्दिक स्वागत।
हटाएंजिज्ञासा जी संजय जी के ब्लॉग पर आपकी गौरैया पर लिखी कविता पढ़ी। बहुत सुंदर। बधाई आपको। आपके गीत बहुत सुंदर हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका विभा जी । समय मिले तो मेरे कविता के ब्लॉग जिज्ञासा की जिज्ञासा पर पधारें । आपका हार्दिक अभिनंदन है ।
हटाएंखूबसूरत अभिव्यक्ति !
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका।
हटाएंबहुत ही सुंदर सावन गीत ! आपका ये गीत पढ़ र मुझे बचपन का गीत याद आ जो हम झूला झूलते समय गाते थे!
जवाब देंहटाएंअरे रामा डलिया भरी सरसोइया बेचन चली जाबे रे हारी..... ! बहुत मस्ती करते थे हम बचपन में झूले पर ही खाना खाते थे सारा दिन झूले पर ही बिताते थे 😄😊😊😄😆
सही कहा प्रिय मनीषा। तुम्हारी टिप्पणी मन को भा गई ।सच मेरा भी बचपन ऐसे ही बीता है ।
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