अरे रामा सूखा परा बड़ी जोर,
हकिमवा सोवे रे हारी ।
चाहे जेतना मचाऊँ सोर
हकिमवा सोवे रे हारी ॥
मैं द्वारे पै उनके ठाढ़ी
ऊ बतिया सुनै न हमारी
मैं भूख पियास की मारी रामा
अरे रामा सौ सौ हाँक गुहारी
जियरा मोरा रोवे रे हारी ॥
जे हाकिम हमारा बनाया
इसे हमने खोपड़िया चढ़ाया
तनी देर म देहौं उतारी रामा
अरे रामा मुँह भर देहौं मैं गारी
चाहे कछु होवे रे हारी ॥
मैं हारि लवट घर आई
मन अपने क़सम धराई
सब करिहौं मैं स्वयं उपायी रामा
अरे रामा लोगन म अलख जगायी
बीज सब बोवे रे हारी ॥
मैं अपनी सखिन का बोलाई
बट नीम औ तुलसी उगाई
मैं द्वारे पे सगरा खोदाई रामा
अरे रामा दरि-दरि बिरछ लगाई
हरेरी आवे रे हारी ॥
**जिज्ञासा सिंह**
बहुत सुन्दर ! लगता है कि आसमानी हाकिम भी धरती के हाकिमों की तरह हम आम लोगों की दर्द भरी पुकार को अनसुना कर रहा है.
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (25-06-2022) को चर्चा मंच "गुटबन्दी के मन्त्र" (चर्चा अंक-4471) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंमैं अपनी सखिन का बोलाई
जवाब देंहटाएंबट नीम औ तुलसी उगाई
मैं द्वारे पे सगरा खोदाई रामा
अरे रामा दरि-दरि बिरछ लगाई
बहुत अच्छी सीख भरी रचना, सब सखी-सहेली मिलकर जब बड़, नीम और तुलसी उगाते हैं साथ में तो उसका आनंद और उत्साह की बात ही कुछ और होती है
बहुत बहुत आभार आपका कविता जी ।
हटाएंबहुत ही सुंदर लिखा है आपने भाव झरने से बह पड़े।
जवाब देंहटाएंसादर
बहुत बहुत आभार अनीता जी ।
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