देख देख मैं जल भुन जाऊँ, सुलगूं बन अगिनियाँ ॥
सुबह सवेरे चाय बनाऊँ, ले के जाऊँ पिय के पास।
देखि देखि सौतन का परचम, मनवा मेरा रहे उदास ॥
अखबारों में मुंडी डारे, हाथ में कितबिया ॥
बगल रखा मोबाइल घन घन,घंटी मारे मिनट मिनट पर ।
सूप्रभात का मैसेज लेके, आवैं गोरी व्हाट्सएप पर ॥
जैसे घूरूँ साजन बोलें, हैं बीमा कंपनियाँ ॥
हाय बेरहम मित्रमंडली, रोज सवेरे आ जाती है ।
अदरक लेमनग्रास की चइया,भरभर के कप पी जाती है॥
गप्प मारते जब वे हँसके, तड़पूँ ज्यों मछरियाँ ॥
पहले पेपर, मित्र थे सौतन, अब मोबाइल फ़ोन है ।
डाटा, नेट ज्यों खत्म हुआ, मुआँ वाई फाई ऑन है।।
फोन टच सहलावें ज़ालिम, लोटे है नागिनियाँ ।।
**जिज्ञासा सिंह**
बहुत ख़ूब जिज्ञासा !
जवाब देंहटाएंवैसे यही कविता अपनी पत्नी के लिए कोई पति भी लिख सकता है.
आपका विनम्र आभार ।
हटाएंपति की तरफ से भी जल्दी ही आपको पढ़ने को मिलेगी..आपको सादर अभिवादन।
आदरणीय शास्त्री जी, सादर प्रणाम।
जवाब देंहटाएंगीत को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका आभार और अभिनंदन।मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।
क्या बात है प्रिये 👌👌👌👌😀😀😀
जवाब देंहटाएंसुन सखी काहे को जिया जलावै,
जियो और जीने दो की नीति
काहे नहीं अपनावै?
साजन घर और घरनी के
कहाँ सौतन के बस में आवै
मिले बाहर या फुनवा में
घर तो ना लेके आवै
आनी और जानी बाहर वाली
घरवाली तो एक कहावै
दिन-भर भले कहीं भी घूमे
हर साँझ तेरे घर आवै!!!
😀😀😀😀🙏
वाह गजबे हाजिरजवाबी।मजा आ गया। सही कह रही हैं,
जवाब देंहटाएंलेकिन ई फुनवा तो कौनो न कौनो रूप म दुसमनी निभा ही देता है 😃😃🤩🤩😍😍
😀🙏
हटाएंबहुत सुंदर कहा 😂
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार प्रिय अनीता जी।
हटाएंवाह !! बहुत ख़ूब !!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार मीना जी ।
हटाएंसुन्दर सृजन।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार मनोज जी ।
जवाब देंहटाएंवाह बेहतरीन 👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका अनुराधा जी आपका ।
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