अंजनी के लाला कमाल
हवा में उड़ जाएँ ।
कभी भूमि पर, कभी बिरछ पर
कभी नभ के उस पार, नजर हैं आएँ ॥
हमने कहा कभी मेरे घर अइयो ।
संग म अपनी सेना लइयो ॥
लड्डू, हलवा, खीर औ पूड़ी,
जो कछु खाओ बनाएँ ॥
भोर भए वे उतर परे हैं ।
घर अँगना छज्जा पै चढ़े हैं ॥
एक जैसे बानर रुप धरि
हमको हैं सबरे डराएँ ॥
हमसे कहें तनी पानी पिलाओ ।
भूख लगी गुड़धनिया खिलाओ ॥
अम्मा कहें, ये हनुमत के बंसी,
हम झुक के सीस नवाएँ ॥
देखि रूप मैं खुब घबराऊँ ।
खीस निपोरें वे, डर-डर जाऊँ ॥
मोरी बगिया में उछल कूद रहे,
तोरि-तोरि फल सारे खाएँ ॥
बानर भी हनुमत बन आया ।
प्रेम दिया तो प्रेम ही पाया ॥
मानव बनकर स्वयं मदारी
बानर नाच नचाएँ ॥
**जिज्ञासा सिंह**
शब्द: अर्थ
बिरछ: पेड़, वृक्ष
गुड़धनिया: भुना हुआ गेहूं गुड़ में पगा हुआ
बंसी: वंशज
सीस: शीश
तोरि: तोड़ना
जय हनुमान ! हम सब पर हनुमान जी की कृपा बनी रहे.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय सर।
हटाएंसुंदर रचना ..... जय बजरंगबली ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका दीदी ।
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (08-06-2022) को चर्चा मंच "निम्बौरी अब आयीं है नीम पर" (चर्चा अंक- 4455) पर भी होगी!
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आदरणीय शास्त्री जी, नमस्कार !
हटाएंमेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपका।
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका भारती जी ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर। जय श्रीराम।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार नीतीश जी ।
हटाएंवाह सुन्दर रचना |
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका।
हटाएंबहुत सुदर रचना...जय श्रीराम जिज्ञासा जी
जवाब देंहटाएंबहुत आभार आपका अलकनंदा जी।
हटाएंअनोखी रचना. सरस.
जवाब देंहटाएंमेरे लोकगीत के ब्लॉग पर आपकी उपस्थिति अतीव हर्ष दे गई ।
जवाब देंहटाएंजय हनिमान ज्ञान गुनी सागर ...
जवाब देंहटाएंआपके वंदन भाव और शब्द ... बहुत कमाल ...
बहुत आभार आपका।
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