साधो ! मन ना कहिए जाई
तन आभूषण देखि लोभइहैं
मन देइहैं बिसराई ॥
कित डूबे, कित बहि उतराने
नदिया, कौन से सागर छाने
केहि नौका पे बैठि चले पिय
किनकी गही कलाई ॥
काहे पे भरमे, कब बेल्हमाने
देखे कितने ठौर ठिकाने
चढ़ि आसन नौ मन इतराने
उतरत पीर बढ़ाई ॥
ये जीवन सागर सम गहरा
घाट-घाट पर उनका पहरा
सागर का दीवान कौन है
देखी का परछाई ?
अब जानी मन के भरमन को
साँच-झूठ, बिचरत जीवन को
एक-एक पग क़ीमत डग की
देन परत उतराई ॥
**जिज्ञासा सिंह**
बहुत ही खूबसूरत रचना! प्रिय मैम!
जवाब देंहटाएंदादी को सुनाना प्रिय मनीषा.. बहुत आभार अनुजा🌺🌺
जवाब देंहटाएंमैं घर पर नहीं हूँ लखनऊ हूँ जब जाऊंगी तो जारूर सुनाऊंगी!
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (8-12-22} को "घर बनाना चाहिए"(चर्चा अंक 4624) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
नायाब सृजन
जवाब देंहटाएंजीवन को गहराई से देखने की कला सिखाती सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआदरणीया जिज्ञासा जी ! नमस्कार !
जवाब देंहटाएं.....सागर का दीवान कौन है !!!!
अद्भुत.........
लोक भाषा और तत्सम शब्दावली से कई बिम्ब रचती उद्दात्त पंक्तियों के लिए बहुत अभिनन्दन !
जय श्री कृष्ण !