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एक पाती लिखूँगी मैं आज..सावन गीत

   

एक पाती लिखूँगी मैं आज 

हरे हरे सावना 

मोरी अम्मा में जिया मोरा लाग 

हरे हरे सावना 


आजु सपन मैं देखी बबुल जी का घर

सब अँगन में बैठे हैं साँझ पहर

बाबा दादी बुलायें हम दौड़ी हैं आएँ

मन खोल लिखूँ हिय बात

हरे हरे सावना 


मेरे सपन में बचपन की सखियाँ दिखैं

मेरे गोद में गुड्डा  गुड़िया दिखैं

मोरे गुड्डा  गुड़िया का ब्याह रचा

मोरे द्वारे पे आई बरात 

हरे हरे सावना 


अब काव लिखूँ यहि पाती सखी

मन हर्षित है मन होत दुखी

मोरे ससुरे  नैहर की कौन सुने

आजु जियरा है मोरा उदास

हरे हरे सावना 


मैं बाबुल लिखूँ या बिरन लिखूँ

यहि सवन  आए अब चैन लिखूँ

कोई मोहे बताए काव काव लिखूँ

मोरे जियरा में सौ सौ बात 

हरे हरे सावना 


एक पाती लिखूँगी मैं आज 

हरे हरे सावना 

मोरी अम्मा में जिया मोरा लाग 

हरे हरे सावना 


**जिज्ञासा सिंह**   

हकिमवा सोवे रे हारी..कजरी

 
अरे रामा सूखा परा बड़ी जोर,

हकिमवा सोवे रे हारी 

चाहे जेतना मचाऊँ सोर

हकिमवा सोवे रे हारी 


मैं द्वारे पै उनके ठाढ़ी

 बतिया सुनै  हमारी

मैं भूख पियास की मारी रामा

अरे रामा सौ सौ हाँक गुहारी

जियरा मोरा रोवे रे हारी 


जे हाकिम हमारा बनाया

इसे हमने खोपड़िया चढ़ाया

तनी देर  देहौं उतारी रामा

अरे रामा मुँह भर देहौं मैं गारी

चाहे कछु होवे रे हारी 


मैं हारि लवट घर आई

मन अपने क़सम धराई

सब करिहौं मैं स्वयं उपायी रामा

अरे रामा लोगन  अलख जगायी

बीज सब बोवे रे हारी 


मैं अपनी सखिन का बोलाई

बट नीम  तुलसी उगा

मैं द्वारे पे सगरा खोदाई रामा

अरे रामा दरि-दरि बिरछ लगाई

हरेरी आवे रे हारी 


**जिज्ञासा सिंह**

अँखियाँ भरि भरि जायँ.. लोकगीत

ओ सखी मोरी अँखियाँ 
भरि भरि जायँ । 
बारे पिया की याद में,
मोरी अँखियाँ भरि भरि जायँ ॥

पिया सलोने गए नौकरिया
जब से गए नाहीं दीनी खबरिया
रात दिना मैं राह अगोरूँ
चैन लुटा है जाय ॥
ओ सखी…

प्रीति बिना मोरी सूनी नगरिया
दूर दूर नाहीं दीखें सँवरिया,
कासे कहूँ अब का की सुनूँ मैं
मति मोरी भरमाय ॥
ओ सखी…

बाली उमर की प्रीति अनोखी
मन चंचलता अँखियन सोखी
कौन कहे वो कब आवेंगे
क्षन नाहीं बीते बिताय ॥
ओ सखी...

झूला जो झूलूँ नभ तक जाए
साँझ सुनहरी है मुस्काए 
खग आए सब अपने द्वारे
प्रियतम नाहीं आयँ ॥
ओ सखी…

**जिज्ञासा सिंह**

अंजनी के लाला

अंजनी के लाला कमाल
हवा में उड़ जाएँ ।
कभी भूमि पर, कभी बिरछ पर
कभी नभ के उस पार, नजर हैं आएँ ॥

हमने कहा कभी मेरे घर अइयो ।
संग म अपनी सेना लइयो ॥
लड्डू, हलवा, खीर औ पूड़ी,
जो कछु खाओ बनाएँ ॥

भोर भए वे उतर परे हैं ।
घर अँगना छज्जा पै चढ़े हैं ॥
एक जैसे बानर रुप धरि 
हमको हैं सबरे डराएँ ॥

हमसे कहें तनी पानी पिलाओ ।
भूख लगी गुड़धनिया खिलाओ ॥
अम्मा कहें, ये हनुमत के बंसी,
हम झुक के सीस नवाएँ ॥

देखि रूप मैं खुब घबराऊँ ।
खीस निपोरें वे, डर-डर जाऊँ ॥
मोरी बगिया में उछल कूद रहे,
तोरि-तोरि फल सारे खाएँ ॥

बानर भी हनुमत बन आया ।
प्रेम दिया तो प्रेम ही पाया ॥
मानव बनकर स्वयं मदारी
बानर नाच नचाएँ ॥

     **जिज्ञासा सिंह**
शब्द: अर्थ
बिरछ: पेड़, वृक्ष
गुड़धनिया: भुना हुआ गेहूं गुड़ में पगा हुआ
बंसी: वंशज 
सीस: शीश 
तोरि: तोड़ना 

समधी के बारे लला (लोकगीत)


भोजन करो समधी के बारे लला ।
बारे लला, गोभवारे लला ॥
भोजन करौ समधी के बारे लला ॥

छप्पन बिंजन रुचि रुचि बनायों
रसही जलेबी इमरती रचायों
खाओ तो खाओ नाहीं, समधी बोलाई
तोरी अम्मा बोलाओं बारे लला । 
भोजन करौ समधी के बारे लला ॥

जयपुर कढ़ैया के चदरा मंगायों
झारि झारि तकिया सजाय बिछायों
लेटो तो लेटो नाहीं, बहिना बोलाई
तनी एसी चलावें बारे लला ।
भोजन करौ समधी के बारे लला ॥

यहि रे नगरिया दूल्हे गरमी बहुत है
गली गली ठंडा दोकान सजत है
पियो तो हम तोहे बोतल मंगाइ देइ
पैप्सी मंगाओं बारे लला ।
भोजन करौ समधी के बारे लला ॥

हमरे देस बाजारन म आयो 
सादी अउर बियाहन म आयो
पैसा वसुलिहौं, ब्याज लगइहौं
जौन खर्च कराएव बारे लला ।
भोजन करौ समधी के बारे लला ॥

**जिज्ञासा सिंह**
शब्द: अर्थ
बारे लला: छोटे बच्चे 
गोभवार: गर्भ के बाल वाले बच्चे
दोकान: दुकान 
बिंजन: व्यंजन, भोजन 
वसुलिहौं: वसूली करना