मेड़े मेड़े घुमि घूमि पौध लगाँवव, पौध जे जाय हरियाय ।
उपरा से झाँकय सुरज की जोतिया, नीचे धराति गरमाय ।।
आओ न सुरजा चौक चढ़ि बैठौ, देहूँ मैं बेनिया डोलाय ।
तपन धुजा की मिटाओ मोरे सुरजा, मेह का दीजो बोलाय ।।
होत भोर मैं सुरजा मनाएंव, सांझ बदरिया डेरा डारि ।
झिनि झिनि बूंदन बरसे बदरिया, घिरि आई कारी अंधियारि ।
आधी रात घन बरसन लागे, बिजुरी कड़के बड़ी जोर ।
भोर भए मोरी भरि गई कियरिया, पनिया भरा है चारिव ओर
खेत मेड़ हरियाय गए राजा, धरती बिहंसि हरसाय ।
अंचरा पसारे रानी सुरजा निहारें, सुरजा बदर छुप जाएं ।।
**जिज्ञासा सिंह**
शब्द: अर्थ
धराति: धरती
लगाँवव: लगाना
हरियाय: हरा होना
सुरजा: सूरज
बेनिया: हाथ का पंखा
धुजा: शरीर
झिनि झिनि: छोटी छोटी