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फौज हमय जिव-जान से प्यारी.. दो लोकगीत


(१)
सुन लेव पिताजी हमार, हमहूँ फौज मा जइबे।
साहब बनब सरकार, नजर दुसमन कय गिरइबे।।

हाथ म हम बन्दुखिया लेबै, अँखियाँ नाल म गड़इबे
सरहद पर घुसपैठ जो देखबै, बैरी मार देखइबै।
पिताजी हमहूँ फौज मा जइबे।

जगदम्बा, दुर्गा हम बनबै, रानी झाँसी बन जइबै,
देस के आगे परिवार न देखबै, जियरा देस पै लुटइबै
पिताजी हमहूँ फौज मा जइबे।

हमका पिताजी अबला न समझो, मौके पे सक्ति देखइबै 
सबल लोग पीछे रहि जैहैं, आगे कूद हम लड़बै,
पिताजी हमहूँ फौज मा जइबे।

फौज हमय जिव जान से प्यारी, सेवा कैइके देखइबै 
चाहे जेतनी होय परिच्छा,पास होइकै देखइबै,
 पिताजी हमहूँ फौज मा जइबे।

(२)
सैंया भए सेनानी छोड़ मोहें 
सरहद निकल गए ।
गोदिया म दइके निसानी
होत भिनुसारे निकल गए॥

खाकी-खाकी वर्दी, पे गोल-गोल टोपिया
हथवा में लय के पिया बैग औ बकसिया
बोलन लागे जैसे कागा, 
कोयलिया न बोली निकल गए ॥

लंबे लंबे पिया मोरे,चौड़ी-चौड़ी छतियाँ
संवरा बदन, ऊँचा माथा, बड़ी अँखियाँ
भूले नाहिं सुधि बिसराए,
हाय सूरतिया निकल गए ॥

पल ऐसे बीते जैसे मास दिवस बीते
पिया बिन मोरे हर रंग रैबार रीते
नीकी नाहीं लागे यही दुनिया,
बनाय बावरिया निकल गए ॥

अपने पिया को दिया बचन निभाय रही 
सारी जिम्मेवारी सीस माथे से लगाय रही 
देसवा है तन मन धन सब,
धराय के कसमियाँ निकल गए ॥

**जिज्ञासा सिंह**

2 टिप्‍पणियां:

  1. वीर भावना से हिलोरते नारी मन की सुन्दर अभिव्यक्ति है यह कविता - साधुवाद ,जिज्ञासा जी !
    और दूसरी कविता में एक वीर सैनिक की सजग-सचेत पत्नी की निष्ठा -
    आजकल की रचनाओं में यह बोध कम ही देखने को मिलता है .

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  2. दोनों गीतों में नारी मन को बहुत प्रभावी ढंग से उकेरा है आपने ।बहुत सुन्दर गीतों के सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई जिज्ञासा जी !

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